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टुटन

अक्सर मैं सोचता हूँ, चुपचाप, ग़ुम सुम, क़ि कितनी बार बुने मैंने सतरंगे सपने, और कितनी बार टूटे मेरे अरमान। किसे दूँ इसका दोष? खुद को, या वक़्त को या फिर इस खोखले समाज और इसकी  तथाकथित मर्यादा को, जो फल फूल रहा है हम जैसे मासूमों की इच्छाओं सपनों और  अरमानों की कब्र पर।

आदमी

  दो पायों की भीड़ में, मिलता नहीं कोई आदमी, जो महसूस कर सके, किसी का आदमी होना, या एहसास दिला सके, अपने आदमी होने का, भाग रहे है सब सीधे सरपट, आधुनिकता की अंधी दौड़ में, फुरसत नहीं किसी को, एक क्षण देखने की, दायें या बाएं, जहाँ चीथड़ो में लिपटी जिंदगी,  बिलबिला रही है कीड़ो सी, कचरे के ढेर पर.