टुटन
अक्सर मैं सोचता हूँ, चुपचाप, ग़ुम सुम, क़ि कितनी बार बुने मैंने सतरंगे सपने, और कितनी बार टूटे मेरे अरमान। किसे दूँ इसका दोष? खुद को, या वक़्त को या फिर इस खोखले समाज और इसकी तथाकथित मर्यादा को, जो फल फूल रहा है हम जैसे मासूमों की इच्छाओं सपनों और अरमानों की कब्र पर।