आदमी

 
दो पायों की भीड़ में,
मिलता नहीं कोई आदमी,
जो महसूस कर सके,
किसी का आदमी होना,
या एहसास दिला सके,
अपने आदमी होने का,
भाग रहे है सब सीधे सरपट,
आधुनिकता की अंधी दौड़ में,
फुरसत नहीं किसी को,
एक क्षण देखने की,
दायें या बाएं,
जहाँ चीथड़ो में लिपटी जिंदगी,
 बिलबिला रही है कीड़ो सी,
कचरे के ढेर पर.

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