गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा - एक विवेचना



                               गुणवत्तापूर्ण शिक्षा - एक विवेचना

शिक्षा हमें समृद्ध करने एवं एवं अन्य प्राणियों से अलग कर हमें एक विशिष्ठ स्थान प्रदान करने वाली सर्वोत्तम विधा है. शिक्षा का सामान्य उद्येश्य ज्ञान, उचित आचरण तकनीकी दक्षता आदि तत्वों का विकास कर एक संपूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करना है. तात्पर्य यह कि शिक्षा का मूल एवं एकमात्र उद्येश्य मनुष्य में मानवोचित गुणों एवं समाजोपयोगी मूल्यों का विकास करना है.

लेकिन हाल के दिनों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा अथवा मूल्य आधारित शिक्षा एक लोकप्रिय चर्चा का विषय बना हुआ है. औपचारिक अनौपचारिक रूप से यत्र तत्र सर्वत्र सभी प्रबुद्ध एवं आमजन अपनी अपनी क्षमता एवं सीमा के अनुरूप इन विन्दुओं पर चर्चा करते नज़र आ जाते हैं. इन चर्चाओं में सर्वसम्मति से सब लोग एक निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में गुणवत्ता का अभाव हो गया है अथवा वर्तमान में शिक्षा प्रणाली मूल्यरहित हो गयी है.
इस विषय पर आगे कुछ भी कहने से पहले ये समझना होगा कि गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा है क्या? मूल्याधारित शिक्षा है क्या? क्या हैं वो प्रतिमान और पैमाने जो शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण अथवा मूल्य आधारित बनाते है. उससे भी पहले हमें ये समझना आवश्यक है कि शिक्षित होना मनुष्य के लिए क्यों आवश्यक है और शिक्षा का उद्येश्य क्या होना चाहिए?

हमारा देश एक युवा देश है, युवाओं का देश है और एक विशाल गणतंत्र भी जो अपने आपमें विभिन्न वैचारिक सांस्कृतिक धार्मिक एवं अन्य विविधताओं से ओत-प्रोत है. इन्हीं विविधताओं के बीच आवश्यक सामंजस्य बिठाते हुए एकता कायम रखना एवं एक राष्ट्र के रूप में खड़े रहना हमारी वास्तविक शक्ति भी है और सबसे बड़ी चुनौती भी. तमाम विविधताओं के बीच हमारी एकता हमारी राष्ट्रीयता एवं विपरीत परिस्थितियों में एक राष्ट्र के रूप में खड़े होने की हमारी क्षमता जहाँ पूरी दुनियां के लिए सुखद आश्यर्य का विषय है वही कुछ रुढ़िवादी समाज के आँखों की किरकिरी भी और ये शक्तियां येन केन प्रकारेण हमारी राष्ट्रीयता एवं एकता को भंग करने हेतु लगातार प्रयासरत रहते हैं.

ऐसे में यह नितांत आवश्यक है की हमारी आनेवाली पीढ़ी ऐसी शिक्षा व्यवस्था में विकसित हो जो तमाम विविधताओं के बीच भी हमारी राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय एकता की भावना को अक्षुण्ण रखते हुए उत्तरोत्तर संरक्षित और प्रोत्साहित करता रहे. ऐसे में आवश्यक है कि हम जब भी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की बात करें तो इसके मूल में उपर्युक्त भावनाओं एवं तथ्यों का गंभीरतापूर्वक  ध्यान रखें क्योकि गुणवत्ता के अन्य सारे मापदंडों की विवेचना मात्र इसी कसौटी पर समीचीन हो सकती है कि किसी शिक्षा व्यवस्था में राष्ट्रीयता को संरक्षित रखने वाले मूल्य और तत्व कितनी मजबूती से समाहित किए गए हैं.

शिक्षा में गुणवत्ता अथवा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर विचार करने से पूर्व हमें शिक्षा और शिक्षित होने के उद्येश्यों पर भी गंभीरता से विचार करना होगा. हमें यह जानना होगा कि हमारे लिए शिक्षित होना क्यों आवश्यक है और वो कौन से मापदंड हैं जिनके आधार पर हम किसी को शिक्षित या अशिक्षित कह सकते है. क्या विभिन्न पूर्व निर्धारित सैद्धांतिक परीक्षाओं को पास करते हुए प्रमाणपत्रों एवं उपाधियों को संग्रहित कर लेने से ही किसी को शिक्षित होने या शिक्षित कहलाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है ? क्या वैसे लोगों को जो व्यवहारिक योग्यताओं से परिपूर्ण हैं परन्तु उपाधियाँ नहीं ले पाते है, शिक्षित नहीं कहा जा सकता है ?

हमारी पौराणिक कथाओं में प्रचलित है कि पूर्व के राजा महाराजा अपने मंत्रियों सलाहकारों एवं अन्य महत्वपूर्ण पद धारकों के चयन में प्रमाणपत्रों से ज्यादा किसी व्यक्ति की बुद्धिमत्ता , ज्ञान, व्यावहारिकता, समर्पण, उद्येश्य, विचार,एवं अभिवृति आदि गुणों को ज्यादा तरजीह देते थे. हमारी पौराणिक शिक्षा व्यवस्था उपर्युक्त मूल्यों के संबर्धन को महत्वपूर्ण मानती थी और तदनरूप पठान पाठन में इन मूल्यों को महत्ता दी जाती थी.

कालांतर में हमारे सामाजिक परिवेश बदले, हमारी प्राथमिकताएं बदली और धीरे धीरे हमारी पुराणी शिक्षा पद्धति का स्थान मैकियावेली की शिक्षा पद्धति ने ले लिया जिसमे मूल्य आधारित व्यवहारिक गुणों के विकास को दरकिनार करते हुए सिर्फ किताबी ज्ञान और परिक्शोपरांत मिलने वाले कुछ डिग्रियों तक ही सीमित होकर रह गया. मैकियावेली की शिक्षा प्रणाली ब्रिटिश शासकों की आवश्यकता का संरक्षण करता था और उसे भारतीय मूल्यों और नैतिकताओं से कोई सरोकार नहीं था. हम भारतीयों के लिए परतंत्रता के कारण उसे मान लेने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था. आजादी के बाद इसके स्थान पर भारतीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा व्यवस्था का विकास हमारी पहली और सर्वाधिक महत्वपूर्ण आवश्यकता थी ताकि भावी पीढ़ी का निर्माण अपेक्षाओं के अनुरूप किया जा सके. लेकिन दुर्भाग्यवश आज लगभग 70 साल बीत जाने के बाद भी कमोवेश हम उसी मैकियावेलियनशिक्षा पद्धति के अनुपालक बने हुए है.

शिक्षा का मूल उद्येश्य तो बच्चों के वय्क्तित्व का समग्र एवं बहुआयामी विकास होना चाहिए ताकि प्रत्येक बच्चा सर्वप्रथम एक जिम्मेदार नागरिक बन सके और अपने देश और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सके. लेकिन इसके विपरीत हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के विवेचन से पता चलता है कि इसका एक मात्र उद्येश्य डिग्रियां जमा करना और उन डिग्रियों के आधार पर नौकरी प्राप्त करना रह गया है. तमाम वैसे मूल्य जो एक संपूर्ण एवं समग्र रूप से विकसित व्यक्तित्व के घटक होते हैं वो हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में उपेक्षित प्रतीत होते हैं. यही कारण है कि हमें शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण बनाने की जरूरत महसूस हो रही है. वर्तमान की मूल्य रहित शिक्षा पद्धति का ही परिणाम है कि आज हमारे समाज में अनुशासनहीनता, अपराध और भ्रष्टाचार चरम पर है.

हालाँकि इन विकृतियों के लिए हमारा वयस्क समाज और राजनीति भी कम जिम्मेदार नहीं है. आज के परिवेश में हम अपने बच्चों की सफलता – असफलता का निर्धारण उनके संस्कारों और विचारों से न कर इस बात से करते हैं कि वो कितने पैसे कम सकता है. हम अपने बच्चों को एक विचारोंन्न्त संतान बनाने की अपेक्षा पैसा बनाने की मशीन बनने के लिए प्रेरित करते है. यहाँ हम वयस्कों को अभिभावक के तौर पर अपने बच्चों के लिए प्राथमिकताएं तय करते वक़्त मूल्य और नैतिकता को दृष्टिगत रखने की आवश्यकता है.

आज धनार्जन हमारे समाज की प्राथमिकता बन गयी है चाहे वो किसी भी तरह से हो. समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के प्रति हम लगभग पूर्णतः निरपेक्ष हो गए हैं. दुर्भाग्य है हमारे समाज और देश का कि आजादी के लगभग सात दशक के बाद भी हम अपने देश की शिक्षा प्रणाली में एकरूपता नहीं ला पाए हैं. उससे भी बड़ा दुर्भाग्य है कि आम जन की शिक्षा को भगवान् भरोसे छोड़ दिया गया है जहाँ शिक्षा के नाम पर महज खानापूर्ति हो रही है. दूसरी तरफ खास जनों की शिक्षा पूरी तरह धनाड्य वर्ग के हाथो जो प्राइवेट संस्थानों के माध्यम ऊँची कीमतों पर शिक्षा की दुकान चला रहे हैं जिसमे सिर्फ उसी तथाकथित बाजारू मूल्यों का संवर्धन और पोषण करते हैं जिनका नैतिकता से कोई लेना देना नहीं है. और ये सहज ही समझा जा सकता है कि बाजारू मूल्य तो मुख्यतः आर्थिक पैमानों पर निर्धारित किए हाते है. ऐसे में  नैतिक मूल्यों का ह्रास होना तो स्वाभाविक ही है. दूसरी तरफ भारत की जो बहुसंख्यक आवादी है और जो सरकारी व्यवस्था की मुहताज है वहाँ नैतिक मूल्यों के संवर्धन की तो बात ही छोड़िये, सामान्य अकादमिक शिक्षा सुचारू रूप से दी जाती है या नहीं ये भी विवेचना का ही विषय है. यही पर ‘इंडिया’ और ‘भारत’ दो अलग अलग देश प्रतीत होते हैं. एक तरफ जहाँ ‘इंडिया’ समृधि की चकाचोंध में इतरा रहा है वही दूसरी तरफ ‘भारत’ सदियों से चली आ रही उपेक्षा के अन्धकार में सिसकने को विवास है.  विडंवना ये है कि आमजनों एवं बहुजनों की शिक्षा व्यवस्था के लिए जो जिम्मेदार हैं वो इसके उपभोक्ता नहीं हैं क्योंकि उनके अपने बच्चे इस पद्धति के उपभोक्ता नहीं है. ऐसे में इसकी दुर्व्यवस्था का दंश उन्हें नहीं झेलना पड़ता है और स्वाभाविक रूप से इसके प्रति उनके सरोकार गंभीर नहीं होते हैं.

गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा अथवा शिक्षा में मूल्यों के ह्रास की चर्चा करते समय हमारे समाज और प्रशासन के सभी घटकों द्वारा अकसर सारी जिम्मेदारी शिक्षकों पर डालकर अपने-अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों की इतिश्री समझने का प्रपंच एक नई परिपाटी बन गयी है. मेरे इस कथन का उदेश्य गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में शिक्षकों की जिम्मेदारी को कम करने का प्रयास तो विल्कुल ही नहीं है; अपितु मेरे इस कथन का उद्येश्य गुणवत्ता विकास की प्रक्रिया में समाज  और व्यवस्था के सभी घटकों की महत्ता को रेखांकित करना मात्र है. इस तथ्य से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि शिक्षा को गुणवत्ता पूर्ण बनाने में शिक्षकों की भूमिका एवं जिम्मेदारी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि किसी बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका अपना घर और परिवार होता है और दूसरी पाठशाला उसका परिवेश और समाज होता है. विद्यालयी शिक्षा जहाँ से शिक्षकों की भूमिका शुरू होती है का स्थान पूरी शिक्षण प्रक्रिया में तीसरा ही होता है और जबतक एक बच्चा विद्यालय आधारित शिक्षा ग्रहण प्रारंभ करता है तबतक नैतिकता और मूल्यों के बीज काफी हद तक अंकुरित हॉट चुके होते हैं. वर्गकक्ष में जिन मूल्यों और नैतिकताओं को आदर्श के रूप में सिखाया जाता है उन्हें व्यवहारिक जीवन में पददलित होते देख बाल मन एक गंभीर दुविधा से ग्रस्त हो जाता है और फिर वही से विरोधाभास और विघटन की प्रकिया शुरू हो जाती है.

इसका दूसरा पहलू ये भी है कि चाहे वो शिक्षक हों अथवा प्रशासनिक व्यवस्था के अंग, सब के सब प्रथमतः समाज की इकाई होते हैं और उनके मूल्य, उनकी मान्यताएं, उनके व्यवहार, उनका चरित्र, उनकी आकांक्षाएं समाज-सापेक्ष ही हो सकते हैं न कि इससे इतर. तात्पर्य यह कि शिक्षा में गुणवत्ता के ह्रास की जिम्मेदारी कहीं न कहीं हमारे सामाजिक चरित्र से जुड़ जाती है. हम किसी भी व्यवस्था या संस्था के चरित्र को समाज के चरित्र से अलग कर समझने की भूल नहीं कर सकते हैं. हममें से प्रत्येक को समाज की इकाई के रूप में अपने कर्तव्य और अपनी जिम्मेदारी को समझना होगा तभी कोई वास्तविक हल निकलेगा अन्यथा गुणवत्ता के विकास की बात सिर्फ कागजी नारा बनकर रह जायेगा. निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की जिम्मेदारी हम सब को मिलकर उठाना होगा अन्यथा गुन्वात्तापूर्ण शिक्षा पर हो रही सारी औपचारिक अनौपचारिक चर्चा अरण्यरोदन मात्र बनकर रह जायेगा.      

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